अद्भुत थी भगवान श्री कृष्ण की लीलाएं और अद्भुत थी उनकी मित्रता जिसकी मिसाल आज तक दी जाती है। उसी मित्रता का प्रतीक है बेट द्वारका। क्या आप जानते हैं बेट द्वारका का इतिहास यदि नहीं तो आज का यह ब्लॉग आप ही के लिए है।
तो बिना देर किए सीधा चलते हैं बेट द्वारका की ओर यह स्थान मुख्य द्वारका से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित है।भगवान श्री कृष्ण की उनके बचपन के दोस्त सुदामा से भेंट इसी स्थान पर हुई थी जिस कारण इसका नाम भेंट द्वारका पड़ा। बाद में गुजराती भाषा के कारण इसका नाम बदलकर बेट द्वारका हो गया। बेट द्वारका समुद्र के एक टापू पर स्थित है जो शंख के आकार में दिखाई पड़ता है जिस कारण इस स्थान को शंखाधार के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान चारों तरफ से पानी से गिरा हुआ है नाव या छोटे जहाज की सहायता से यहां तक पहुंच जाता है। कहते हैं कि जब द्वारका समुद्र में डूब रही थी तब यह स्थान डूबने से बच गया था। प्राचीन समय में यह बेट द्वारिका मुख्य भूमि से जुडी हुई थी। मुख्य द्वारिका की तरह ही यहां भी भगवान श्री कृष्ण का अद्भुत मंदिर है जिसमें सुदामा कृष्ण की कई मूर्तियां स्थापित है। इस मंदिर का निर्माण 500 साल पहले संत वल्लभाचार्य महाराज ने कराया था। इस मंदिर का कोई शिखर नहीं है। शिखर न होकर मंदिर में सपाट छत है।
राजस्थान के नाथद्वारा मंदिर में भी शिखर नही है सपाट छत है। सुदामा और श्री कृष्ण की इस भेंट का जिक्र हमें विष्णु पुराण में देखने को मिलता है। प्राचीन काल में अवंतिका नाम की नगरी में महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल था। अवंतिका को आज हम उज्जैन के नाम से जानते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने महृषि संदीपनी के गुरुकुल से अपनी शिक्षा दीक्षा प्राप्त की।
गुरुकुल में ही भगवान श्री कृष्ण के एक घनिष्ठ मित्र था जिसका नाम था सुदामा। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण था गुरुकुल में एक परंपरा थी वे छात्रों को गांव में भिक्षा मांगने के लिए भेजा करते थे शाम को सभी छात्र गांव से भिक्षा लेकर गुरुकुल की आते थे और अपनी सारी भिक्षा को गुरुकुल में समर्पित करते थे परंतु सुदामा को रास्ते में बड़ी भूख लगती थी। जिस कारण वह भिक्षा में दिया हुआ आधा खाना खा लेते थे और बचा हुआ गुरुकुल तक ले जाते थे।भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को गुरु की डांट से कई बार बचाया था। जब गुरुकुल की पढ़ाई समाप्त हो गई तब श्री कृष्ण मथुरा लौट आए और सुदामा अपने गांव असमावतीपुर चले गए जिसे आज हम पोरबंदर के नाम से जानते हैं। सुदामा बेहद ही गरीब थे वह भिक्षा मांग कर अपनी पत्नी सुशीला और अपने बच्चों का पेट भरते थे। वह गुरुकुल की और अपने मित्र की कहानियाँ अपनी पत्नी सुशीला को सुनात थे कि कि प्रकार से श्री कृष्ण उन्हें गुरु की डांट से बचाया करते थे। एक दिन उनकी पत्नी सुशीला ने कहा कि आपके मित्र द्वारकाधीश पूरे विश्व का कल्याण करते हैं आप उनसे सहायता मांगिए वह हमारी भी जरूर सहायता करेंगे। इस गरीबी से वह हमें जरूर ऊबारेंगे। पहले तो सुदामा हिचकिचाए परंतु पत्नी के बार-बार कहने पर वे मान गए। सुशीला ने उनके मित्र श्री कृष्ण के लिए एक पोटली में भुने हुए चावल उनको दे दिए। सुदामा पोटली लेकर अपने मित्र से मिलने के लिए उनके महल पहुंच गए।महल के बाहर ही द्वारपाल ने उन्हें रोक लिया उनसे पूछा-कौन हो और किन से मिलने आए हो? सुदामा ने कहा कि वह अपने मित्र कृष्ण से मिलने आए हैं। पहले तो द्वारपाल को कुछ शक हुआ कि यह फटेहाल का व्यक्ति और श्री कृष्ण का मित्र परंतु सुदामा के कहने पर वह महल के अंदर जाता है और भगवान श्री कृष्ण को सूचित करता है। कहता है कि बाहर आपसे मिलने कोई सुदामा नाम का ब्राह्मण आया है जैसे ही भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा का नाम सुना उनकी आंखों से आंसू बहने लगे खुशी के मारे उनका ठिकाना ना रहा। वह अपनी सारी सुध-बुध खोकर सीधा द्वार की तरफ दौड़े और जैसे ही उन्होंने सुदामा को देखा झट से उन्हें अपने गले लगा लिया चारों तरफ प्रसन्नता का माहौल था मानो पुष्प वर्षा हो रही हो।
श्री कृष्ण पूरे सम्मान के साथ सुदामा को महल में ले आये और कोमल मखमली गद्दी पर बैठाकर उनके चरण अपने आंसुओं से धोएं। इस दृश्य को देखकर रुक्मणी हैरान हो गई और सोच में पड़ गई कि यह ऐसा कौन है जिसके चरण तीनों लोको के स्वामी स्वयं द्वारकाधीश धो रहे हैं। रात को भोजन में भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा के लिए विशेष व्यंजन तैयार कराये भोजन करने के उपरांत सुदामा जब सो रहे थे तब उन्होंने उस चावल की पोटली को अपने सिरहाने रख लिया था। भगवान श्री कृष्ण ने विचार किया कि जरूर भाभी ने उनके लिए उपहार में कुछ तो भेजा होगा और उन्होंने सुदामा के सिरहाने उस पोटली को देखा। सुदामा ने श्री कृष्ण के ठाठ बाट देखकर पोटली न देना ही योग्य समझा किंतु लीलाओं के स्वामी श्री कृष्ण ने उस पोटली में से वे चावल चखे जैसे ही भगवान श्री कृष्ण ने पहला निवाला मुख में रखा वैसे ही सुदामा का घर महल में तब्दील हो गया ऐसो आराम की कोई कमी नहीं रही धन-दौलत और हीरे जवाहरात से उनका महल भर गया। जब अगले दिन सुदामा को भोजन कराने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने उनकी विदाई की तब रास्ते में जाते समय सुदामा ने सोचा कि उनके मित्र कृष्ण ने उन्हें विदाई में कुछ नहीं दिया फिर बाद में उन्होंने सोचा शायद वह धन दौलत के अहंकार में आकर अपने पथ से भ्रष्ट न हो जाए सायद इस कारण उनके मित्र ने उन्हें कुछ नहीं दिया परंतु जैसे ही सुदामा अपने घर को पहुंचे उन्होंने पाया कि उनका घर एक शानदार महल में तब्दील हो गया है जिसमें स्वर्ग के सारे ऐश्वर्य र मौजूद है। जैसे ही उन्होंने यह देखा वे श्री कृष्ण की लीला को समझ गए और संपूर्ण जीवन श्री कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिय। जिस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण और सुदामा मिले थे उस स्थान को भेंट द्वारका के नाम से जाना गया जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा की गरीबी दूर की थी उसी प्रकार वह अपने भक्तों के सारे कष्टो को दूर करते हैं। सुदामा श्री कृष्ण के मंदिर में इसी करण चावल चढ़ाने की परंपरा है। कहते हैं कि रुक्मणी ने स्वयं सुदामा और श्री कृष्ण की मूर्तियों का निर्माण कराया था। इसी स्थान पर एक बड़ी चार दिवारी के पीछे पंच महल है जहां भगवान श्री कृष्ण अपनी रानियो और पटरानियों के साथ रहते थे।
इन महलों के दरवाजे और खिड़कियों पर चांदी की कारीगरी देखने को मिलती है यहां तक की भगवान श्री कृष्ण के राज सिंहासन और उनकी रानियां के आसनों पर चांदी की वर्किंग देखने को मिलती है।
बेट द्वारका मंदिर में कृष्ण और उनकी रानीयों की कई मूर्तियां है। जिनको रेशमी वस्त्रों,सोने और हीरो से सजाया जाता है। इस मंदिर की दीवारों पर श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन है। जैसे उंगली पर गोवर्धन पर्वतकेआ उठाना, हाथी को उसकी पूछ से पकड़ कर उठाना,जंगल में बांसुरी बजाते हुए श्री कृष्ण। इन लीलाओं को उन्होंने मथुरा गोकुल और वृंदावन में किया था। इस स्थान पर कई तालाब है जिनका प्राचीन काल में उपयोग पीने के पानी के तौर पर किया जाता था। बेट द्वारका में राधिका मंदिर ,बलराम मंदिर ,देवकी मंदिर और भगवान कृष्ण के कई सारे मंदिर मौजूद हैं।
16वीं शताब्दी मैं राजस्थान के चित्तौड़ में रानी मीराबाई का जन्म हुआ था। बेट द्वारका से उनका घनिष्ठ संबंध था।उन्होंने अपना अंतिम समय बेट द्वारका में ही बिताया था।मीराबाई श्री कृष्ण की परम भक्त थी राज महल में पैदा होने के बावजूद उन्होंने सारे ऐसो-आराम छोड़कर अपना अधिकांश समय मथुरा और गोकुल की गलियों में बिताया।अपने अंतिम समय (1547 इस्वी) में जब मीराबाई बेट द्वारका में थी तब एक दिन उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को भोग लगाने की इच्छा जताई उन्होंने मंदिर के पंडितों की इजाजत लेकर मंदिर में प्रवेश किया और कहते हैं कि वह मंदिर से कभी बाहर नहीं आई और सदा सदा के लिए उसी मूर्ति में समा गई।
तो यह थी कहानी बेट द्वारिका की जिसके कण कण में श्री कृष्ण बसे हैं।
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